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ज्योतिष शास्त्र 03-03-2022
“ ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् “
सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहा जाता है। इसमें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र आदि ज्योति:पदार्थों का स्वरूप, संचार, परिभ्रमणकाल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह, नक्षत्रों की गति, स्थिति और संचार अनुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है।
होरा अर्थात जातकशास्त्र
होरा अर्थात जातकशास्त्र में जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति के अनुसार व्यक्ति के लिए फलाफल का निरूपण किया जाता है। इस शास्त्र में जन्मकुण्डली के द्वादश भावों के फल उनमें स्थित ग्रहों की अपेक्षा तथा दृष्टि रखने वाले ग्रहों के अनुसार विस्तारपूर्वक प्रतिपादित किये जाते हैं। मानव जीवन के सुख, दुःख, इष्ट, अनिष्ट, उन्नति, अवनति, भाग्योदय आदि समस्त शुभाशुभों का वर्णन इस शास्त्र में रहता है।
मानव-जीवन और ज्योतिष
समस्त ज्योतिष ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है, इसका कभी नाश नहीं होता है, केवल यह कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है। वैदिक दर्शनों में कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण यह तीन भेद माने गए हैं। किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है – चाहे वो इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्मों में , वह सब संचित कहलाता है। अनेक जन्म-जन्मांतरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना संभव नहीं है, क्योंकि इनसे मिलने वाले परिणामस्वरूप फल परस्पर विरोधी होते हैं, अतः इन्हें एक के बाद एक कर भोगना पड़ता है। संचित में से जितने कर्मों के फल को पहले शुरू होता है, उतने ही को प्रारब्ध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात समस्त जन्म-जन्मांतर के कर्मों के संग्रह में से एक छोटे भेद को प्रारब्ध कहते हैं। यहाँ इतना स्मरण रखना होगा कि समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं, बल्कि जितने भाग का भोगना आरम्भ हो गया है, प्रारब्ध है। जो कर्म अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण । इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों-पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है।
मनुष्य के वर्तमान शरीर में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है तथा शरीर रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है। आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आंतरिक दो भागों में बांटा गया है।
बाह्य और आंतरिक इन दोनों व्यक्तित्व संबंधी चेतना के विचार, अनुभव और क्रिया यह तीन रूप माने गए हैं। बाह्य और आंतरिक व्यक्तित्व का आपस में सम्बद्ध है। परंतु आंतरिक व्यक्तित्व अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते हैं, जिससे मनुष्य के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक इन तीन जगतों का संचालन होता है। मनुष्य का अंत:करण इन तीन भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूपों को मिलाने का काम करता है। बाह्य और आंतरिक व्यक्तित्व के बीच रहनेवाला अंत:करण इन दोनों के बीच संतुलन प्रदान करता है। मनुष्य की उन्नति और अवनति इस संतुलन के पलड़े पर ही निर्भर है।