वर – कन्या की कुण्डली का मेलापक
वर – कन्या की कुण्डली का मेलापक
विवाह के पूर्व वर-कन्या की जन्मपत्रियों को मिलाने का आशय केवल परम्परा का निर्वाह नहीं है, किन्तु भावी दंपति के स्वभाव, गुण, प्रेम और आचार-व्यवहार के सबंध में ज्ञात करना है। जब तक समान आचार-व्यवहार वाले वर-कन्या नहीं होते तब तक दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं हो सकता है। जन्मपत्रियों की मेलापक-पद्धति वर-कन्या के स्वभाव, रूप और गुणों को अभिव्यक्त करती है। ज्योतिष शास्त्र नक्षत्र, योग, ग्रह राशि आदि के तत्वों के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव, गुण का निश्चय करता है। वह बतलाता है कि अमुक नक्षत्र, ग्रह और राशि के प्रभाव से उत्पन्न पुरुष का अमुक नक्षत्र, ग्रह और राशि के प्रभाव से उत्पन्न नारी के साथ संबंध करना अनुकूल है।
मांगलिक दोष -- जन्मकुंडली में 1, 4 , 7 , 8 , 12 वें भाव में पापग्रहों का होना पति या पत्नीनाशक कहा गया है। इन स्थानों में पुरुष की कुंडली में मंगल होने से “मंगला” और स्त्री की कुंडली में मंगल होने से “मंगली” संज्ञक योग होते हैं। मंगला पुरुष का मंगली स्त्री के साथ संबंध करना ठीक कहा जाता है। मंगली स्त्री का मंगला के साथ संबंध होना अच्छा होता है। ज्योतिष शास्त्र में उपर्युक्त स्थानों में स्थित मंगल सबसे अधिक दोषकारक , उससे कम शनि और शनि से कम अन्य पापग्रह बताए गए हैं। स्त्री की कुंडली में सप्तम और अष्टम स्थान में शनि और मंगल इन दोनों का रहना बुरा माना जाता है। सप्तमेश एवम अष्टमेश दोनों का एक साथ रहना पति या पत्नी की कुंडली में अनिष्टकारी होता है।
ज्योतिष शास्त्र में एक मत यह भी है कि वर की कुंडली में लग्न-कुंडली और शुक्र-कुण्डली एवम कन्या की कुंडली में लग्न-कुंडली एवम चन्द्र-कुण्डली से 1, 4, 7, 8, 12 वें स्थान के पाप ग्रहों का विचार करते हैं। वर और कन्या के अनिष्टकारी पापग्रहों की संख्या समान या कन्या से वर के पाप ग्रहों की संख्या अधिक होनी चाहिए। कन्या का सप्तम और अष्टम स्थान विशेष रूप से देखना चाहिए।
वर की कुंडली में लग्न से छठे स्थान में मंगल, सातवें स्थान में राहु और आठवें स्थान में शनि हो तो भार्याहन्ता योग होता है, इसी प्रकार कन्या की कुंडली में यही योग पतिहन्ता होता है।
सौभाग्य विचार -- सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों तथा सप्तमेश शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो सौभाग्य अच्छा होता है। अष्टम स्थान में शनि या मंगल का होना सौभाग्य को बिगाड़ता है। अष्टमेश स्वयं पापी हो या पापी ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो सौभाग्य को खराब करता है। सौभाग्य का विचार वर और कन्या दोनों की कुण्डली में कर लेना चाहिए। यदि कन्या का सौभाग्य वर के सौभाग्य से यथार्थ न मिलता हो तो संबंध नहीं करना चाहिए।
कुण्डली मिलाने के अन्य नियम –
1.वर के सप्तम स्थान का स्वामी जिस राशि में हो, वही राशि कन्या की हो तो दाम्पत्य-जीवन सुखमय होता है।
2.यदि कन्या की राशि वर के सप्तमेश का उच्च स्थान हो तो दाम्पत्य जीवन में प्रेम बढ़ता है। संतान की प्राप्ति और सुख होता है।
3.वर के सप्तमेश का नीच-स्थान यदि कन्या की राशि हो तो भी वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
4.वर का शुक्र जिस राशि में हो , वही राशि यदि कन्या की हो तो विवाह कल्याणकारी होता है।
5.वर की सप्तमांश राशि यदि कन्या की राशि हो तो दाम्पत्य जीवन सुखकारक होता है। संतान, ऐश्वर्य की बढ़ोतरी होती है।
6.वर का लग्नेश जिस राशि में हो , वही राशि कन्या की हो या वर के चन्द्रलग्न से सप्तम स्थान में जो राशि हो वही राशि कन्या की हो तो दाम्पत्य जीवन प्रेम और सुखपूर्वक व्यतीत होता है ।
7. पुरुष की जन्मकुंडली की षष्ठ और अष्टम स्थान की राशि कन्या की जन्मराशि हो तो दंपती में परस्पर कलह होता है।
8.वर और कन्या की कुंडली में संतान भाव का भी विचार भी अवश्य कर लेना चाहिए।
ज्योतिष शास्त्र में जन्म लग्न को शरीर और चंद्रमा को मन माना गया है। प्रेम मन से होता है, शरीर से नहीं । इसीलिए आचार्यों ने जन्मराशि से मेलापक विधि का ज्ञात करना बताया है। गुण – मिलान द्वारा वर और कन्या की प्रजनन शक्ति, स्वास्थ्य, विद्या एवम आर्थिक स्थिति का भी अध्ययन करना चाहिए। इस गुण मिलान-पद्धती में निम्न बातें होती हैं -1. वर्ण, 2. वश्य, 3. तारा, 4. योनि, 5. ग्रहमैत्री, 6. गणमैत्री, 7. भकूट और 8. नाड़ी । इनमें से क्रमशः एक-एक अधिक गुण माने गए हैं। अर्थात वर्ण का 1 गुण, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4, ग्रहमैत्री का 5, गणमैत्री का 6, भकूट का 7 और नाड़ी का 8 गुण होता है। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परन्तु नाड़ी और भकूट के गुण का होना जरूरी माना गया है। इनके गुण बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है।
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