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केन्द्राधिपति दोष - स्पष्टीकरण
केन्द्राधिपत्य दोषस्तु बलवान गुरूशुक्रयो: । मारकत्वेअपि च तयोर्मारकस्थानसंस्थिति:।।
बुधस्तदनु चंद्रोअपि भवेतदनु तद्विध: ।
न रंध्रे शत्वदोषस्तु सूर्याचंद्रमसोर्भवेत ।।
अर्थात - केन्द्राधिपति होने का दोष बृहस्पति और शुक्र के संबंध में विशेष है। ये ग्रह केन्द्राधिपति होकर मारक स्थान में हों या इन स्थानों के अधिपति हों तो बलवान मारक बनते हैं।
केन्द्राधिपति दोष शुक्र की अपेक्षा बुध का कम और बुध की अपेक्षा चन्द्रमा का कम होता है।
महान ज्योतिषी पंडित सीताराम झा का अभिप्राय - शुभ ग्रहों का केन्द्राधिपत्य दोष जो कहा गया है वह बृहस्पति और शुक्र का बलवान होता है। तथा शुभ ग्रहों के मारकत्व (सप्तमेशत्व) होने पर भी बृहस्पति और शुक्र में ही विशेषकर मारकत्व दोष होता है। तथा केन्द्रेश होकर मारक स्थान में रहना भी बृहस्पति, शुक्र का ही विशेष दोष – कारक होता है। इन दोनों से न्यून दोष तथा मारकत्व बुध में और बुध से भी न्यून चन्द्रमा में होता है। तथा अष्टमेशत्व दोष जो कहा गया है वह सूर्य और चन्द्रमा में बलवान (प्रबल) नहीं होता है। अर्थाय सामान्य अष्टमेशजन्य दोष तो रहता ही है।
शुभ ग्रहों का केन्द्राधिपति होना अशुभकारक तो है ही। इसलिए चार शुभ ग्रहों में बृहस्पति और शुक्र में विशेष शुभत्व होने के कारण विशेष दोष होना उचित ही है, क्योंकि विशेष स्वच्छ वस्तु में ही दाग विशेष दिखलाई पड़ता है। बुध कदाचित पाप ग्रहों के साथ होने से पापी भी हो जाता है। इसलिए बृहस्पति , शुक्र से बुध में दोष अल्प कहा गया है। चन्द्रमा पूर्ण रहने पर शुभ और क्षीण रहने पर पापी कहलाते हैं। इसलिए बुध से भी न्यून दोष चन्द्रमा में कहा गया है।
विद्वान वी. गो. नवाथे के अनुसार बृहस्पति और शुक्र यदि केन्द्र के अधिपति हों, तो वे अत्यंत अशुभ फल उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार वे द्वितीय और सप्तम स्थानों के स्वामी हों तो बलवान मारक होते हैं। मेष लग्न वालों के लिए दूसरे और सातवें स्थान का स्वामी शुक्र होता है। शुक्र अपनी दशा या अंतर्दशा में मारक होता है। वह जब द्वितीय या सप्तम भाव में होता है तब मनुष्य को निश्चय ही परेशान करता है या मृत्यु तुल्य कष्ट देता है। बृहस्पति एक साथ द्वितीय और सप्तम स्थान का स्वामी कभी नहीं हो सकता है। मिथुन लग्न हो तो सप्तम और दशम स्थान का स्वामी होता है। उसी प्रकार वह कन्या लग्न वालों के लिए चतुर्थ और सप्तम स्थान का स्वामी होता है। बृहस्पति की दशा-अंतर्दशा में मिथुन और कन्या लग्न के जातक को अवश्य मारकेश दोष लगता है।
केन्द्राधिपति दोष शुक्र से कम बुध को और बुध से कम चन्द्रमा को लगता है। उसी प्रकार सूर्य और चन्द्रमा को अष्टमेशत्व का दोष नहीं लगता है या कहा जाय कि बहुत कम लगता है।
बुध और चन्द्रमा जब मारक स्थान के स्वामी होते हैं तब भी शुक्र की अपेक्षा बुध का और बुध की अपेक्षा चन्द्रमा का दोष कम होता है। धनु लग्न वालों के लिए अष्टम स्थान का स्वामी चन्द्रमा होता है। ऐसा कहा गया है कि अष्टम स्थान के स्वामी शुभ फल नहीं प्रदान करते हैं। परन्तु सूर्य और चन्द्रमा इसका अपवाद हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि जो अष्टमेश किसी दूसरे स्थान या भाव के स्वामी न हों उनमें अष्टमेशत्व दोष बलवान नहीं हो सकता है। ऐसे केवल सूर्य और चन्द्रमा ही हैं जो अष्टमेश होकर स्वयं केवल अष्टमेश मात्र रहते हैं इसलिए इन दोनों में अष्टमेशत्व दोष प्रबल नहीं होता है।
विद्वान ह. ने. काटवे कहते हैं –
केन्द्राधिपति दोष बृहस्पति और शुक्र को अधिक प्रमाण में लागू होता है और ये केन्द्राधिपति होकर यदि मारक-स्थान (द्वितीय और सप्तम) में बैठे हों तो उनका मारकत्व का दोष अधिक प्रमाण में दिखाई पड़ता है। अब हम विचार करते हैं – बृहस्पति को केन्द्राधिपति दोष होने के लिए मिथुन, कन्या, धनु और मीन लग्न में से ही कोई एक लग्न होना चाहिए। इसमें मेरे मत में बृहस्पति मिथुन और धनु लग्नों को विद्या और ज्ञान के संबंध में शुभ फल देनेवाला होता है, परंतु संतति के बारे में अनिष्ट फल देने वाला होता है। कन्या लग्न वालों को विद्या के संबंध में साधारण अशुभ फल देता है और मीन लग्न के लिए दोनों प्रकार की संभावना होती है और यही बृहस्पति मिथुन और कन्या लग्न वालों के लिए धन-स्थान में यानी प्रथम मारक-स्थान में हो तो अधिक मात्रा में अशुभ फल देनेवाला होता है। यदि मिथुन और धनु लग्न की कुण्डली में सप्तम स्थान में हो तो शुभ फल दे सकता है। धनु और मीन लग्न के लिए साधारण अशुभ फल दाता होता है और कन्या और मीन लग्न की कुण्डली में सप्तम स्थान में हो तो साधारण अशुभ फल देता है।
शुक्र को केन्द्राधिपति दोष होने के लिए वृषभ, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ लग्न होना चाहिए। इनमें वृषभ लग्न की कुण्डली में प्रथम केंद्र का अधिपति होता है, कुम्भ लग्न की कुण्डली में चतुर्थ में, वृश्चिक लग्न की कुण्डली में सप्तम भाव में और सिंह लग्न की कुण्डली में दशम भाव में शुक्र की राशि आती है। इनमें वृषभ और कुम्भ लग्नों के लिए शुक्र अशुभ फल नहीं देता है (उपरोक्त नियम का यह अपवाद है), सिंह और वृश्चिक लग्नों के लिए साधारण अशुभ फल देता है। सिंह लग्न के लिए द्वितीय और सप्तम स्थान में होकर अति अशुभ और नुकसान कारक फल देता है। शेष वृषभ, वृश्चिक और कुम्भ लग्नों के लिए साधारण शुभ फल देता है तो सप्तम स्थान में अधिक अशुभ फल देता है।
अब तुला राशि केन्द्र में आने के लिए मेष, कर्क, तुला और मकर लग्न होना चाहिए। इनमें से मेष और मकर लग्न को शुक्र शुभ फल दे सकता है। इसमें भी मेष लग्न में द्वितीय भाव अर्थात धन-स्थान में होकर साधारण शुभ फल देगा तो सप्तम भाव में स्वराशि में होकर भी अशुभ फल देगा । मकर लग्न में धन-स्थान में होकर अशुभ फल देगा तो सप्तम स्थान में शुभ फल देगा। कर्क लग्न को साधारण अशुभ फल देता है और धन-स्थान में हो तो अधिक अशुभ फल द्रव्य के संबंध में देगा और सप्तम स्थान में होकर साधारण शुभ फल देगा।
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